*"भारत को सोने की चिड़िया" बनाने वाला :- "असली राजा" कौन था ?* रोहतास सिंह चौहान,इतिहासकार *कौन था , वह राजा ? जिसके :- "राजगद्दी पर बैठने के बाद", उनके "श्रीमुख" से "देववाणी" ही, निकलती थी l और "देववाणी" से ही, "न्याय" होता था?* *कौन था ,वह राजा ? "जिसके":- राज्य में "अधर्म का संपूर्ण नाश" हो गया था।* *महाराज विक्रमादित्य...* *बड़े ही दुख की बात है, कि :- "महाराज विक्रमादित्य" के बारे में, देश को लगभग "शून्य बराबर ज्ञान" है।* जिन्होंने :- *"भारत को सोने की चिड़िया बनाया था" और "स्वर्णिम काल" लाया था।* ● *उज्जैन के राजा थे, गन्धर्वसैन , जिनके तीन संताने थी l सबसे बड़ी लड़की थी l मैनावती , उससे छोटा लड़का भृतहरि और सबसे छोटा वीर विक्रमादित्य..l बहन मैनावती की शादी धारानगरी के राजा "पदमसैन" के साथ कर दी l जिनके एक लड़का हुआ गोपीचन्द l आगे चलकर गोपीचन्द ने "श्री ज्वालेन्दर नाथ जी" से "योग दीक्षा" ले ली l और "तपस्या करने जंगलों में चले गए"..l फिर मैनावती ने भी, "श्री गुरू गोरक्ष नाथ जी से योग दीक्षा ले ली"।* ● *आज ये देश और यहाँ की "संस्कृति" केवल, "विक्रमादित्य" के कारण, "अस्तित्व" में है।* *अशोक मौर्य ने "बोद्ध धर्म" अपना लिया था l और बोद्ध बनकर 25 साल राज किया था।* *भारत में तब "सनातन धर्म", लगभग "समाप्ति" पर आ गया था l देश में -"बौद्ध और अन्य" हो गए थे।* ● *"रामायण, और महाभारत" जैसे "ग्रन्थ" खो गए थे l "महाराज विक्रम" ने ही, पुनः उनकी "खोज "करवा कर, "स्थापित" किया।* *"विष्णु और शिव जी" के "मंदिर" बनवाये l और "सनातन धर्म" को "बचाया"l विक्रमादित्य के 9 रत्नों में से एक -"कालिदास" ने "अभिज्ञान शाकुन्तलम्" लिखा। जिसमे "भारत का इतिहास "है l अन्यथा :- भारत का इतिहास क्या मित्रो ? "हम", "भगवान् कृष्ण और राम " को ही, "खो" चुके थे। हमारे -"ग्रन्थ" ही, भारत में "खोने" के कगार पर आ गए थे।* ● *उस समय -"उज्जैन के राजा भृतहरि" ने राज छोड़कर, श्री गुरू गोरक्ष नाथ जी से योग की दीक्षा ले ली l और "तपस्या" करने जंगलों में चले गए l राज अपने छोटे भाई - "विक्रमादित्य" को दे दिया. I "वीर विक्रमादित्य" भी ,श्री गुरू गोरक्ष नाथ जी से -"गुरू दीक्षा" लेकर, "राजपाट सम्भालने लगे"l और आज उन्ही के कारण :- "सनातन धर्म बचा हुआ है" l हमारी "संस्कृति" बची हुई है।* ● *"महाराज विक्रमादित्य" ने केवल धर्म ही, नही बचाया ? उन्होंने देश को आर्थिक तौर पर "सोने की चिड़िया" बनाई l उनके राज को ही ,"भारत का स्वर्णिम राज: कहा जाता है।* ● *"विक्रमादित्य" के काल में भारत का :- कपडा, विदेशी व्यपारी, "सोने के वजन" से खरीदते थे।* "भारत में इतना सोना आ गया था"..., की :- *"विक्रमादित्य काल" में - "सोने की सिक्के" चलते थे। आप "गूगल इमेज" कर ...,"विक्रमादित्य" के "सोने के सिक्के" देख सकते हैं।* ● *"कैलंडर", जो - "विक्रम संवत" लिखा जाता है ? वह भी, "विक्रमादित्य" का स्थापित किया हुआ है।* *आज जो भी, "ज्योतिष गणना" है ? जैसे , हिन्दी सम्वंत , वार , तिथीयाँ , राशि , नक्षत्र , गोचर ,आदि, उन्ही की रचना है l वे बहुत ही, पराक्रमी , बलशाली, और बुद्धिमान, राजा थे।* *कई बार तो -"देवता" भी, "उनसे न्याय करवाने आते थे"। *"विक्रमादित्य" के काल में हर "नियम" ,"धर्मशास्त्र" के हिसाब से बने होते थे। न्याय , राज, सब "धर्मशास्त्र" के नियमो पर चलता था।* *"विक्रमादित्य" का काल, "प्रभु श्रीराम के राज के बाद सर्वश्रेष्ठ माना गया है"l जहाँ :- "प्रजा", "धनी" थी l और "धर्म पर चलने वाली थी"।* ◆बड़े दुःख की बात है ,की:- " *भारत के सबसे महानतम राजा" :- "विक्रमादित्य" के बारे में हमारे "स्कूलों /कालेजों" मे कोई "स्थान" नही है।* *देश को अकबर, बाबर, औरंगजेब, जैसै - "दरिन्दो" का "इतिहास" पढाया जा रहा है।* बड़ा विचारणीय विषय है?
*"भारत को सोने की चिड़िया" बनाने वाला  :- "असली राजा" कौन था ?* रोहतास सिंह चौहान,इतिहासकार *कौन था , वह राजा ? जिसके :- "राजगद्दी पर बैठने के बाद", उनके "श्रीमुख" से "देववाणी" ही, निकलती थी l और "देववाणी" से ही, "न्याय" होता था…
*राजपूतों का होता पतन* *राजपूतों की क्षीण होती शक्ति का सबसे बड़ा कारण है कि राजपूत नेता एवं हम सभी लोग सिर्फ़ अपनी बड़ाई { प्रशंसा } सुनना चाहते हैं, दूसरों के ख्याति नाम सुनते ही जल जाते हैं। क्षत्रिय समाज के अधिकतर लोगों का स्वाभिमान धीरे - धीरे अभिमान और अभिमान अहम् या अहंकार में बदल जाता है।* राजपूतों के पतन का असली कारण आपसी लड़ाई और एक दूसरे को आगे न बढ़ानेदेने की प्रवृत्ति है। दूसरा कारण है समाज का एक सर्वमान्य नेता का न होना। *अतः वक्त के साथ क्षत्रिय समाज स्वयं की समीक्षा कर अपने अंदर मौजूद अच्छाई और बुराई में से बुराई का तिरस्कार कर अहम् का त्याग करते हुए हर कोई एक दूसरे का पीठ पीछे सम्मान के साथ नाम ले। मेरा दावा है कि वर्तमान वक्त में इससे पूरे देश में शक्तिशाली क्षत्रिय समाज बनेगा। एकता रूपी शक्ति से हर क्षेत्र में स्थापित होकर क्षत्रिय झंडा लहराएगा।*
*राजपूतों का होता पतन*  *राजपूतों की क्षीण होती शक्ति का सबसे बड़ा कारण है कि राजपूत नेता एवं हम सभी लोग सिर्फ़ अपनी बड़ाई { प्रशंसा } सुनना चाहते हैं, दूसरों के ख्याति नाम सुनते ही जल जाते हैं। क्षत्रिय समाज के अधिकतर लोगों का स्वाभिमान धीरे - धीरे अभिमान और अभिमान अहम् या अहंकार में बदल जाता है।* र…
*अद्वितीय योद्धा क्षत्रिय राजपूत सम्राट गोविंद तृतीय राष्ट्रकूट का इतिहास* रोहतास सिंह चौहान,नोएडा साभार ध्रुव (धारावर्ष) प्रथम के कई पुत्र थे, जिनमें स्तंभ रणावलोक, कर्कसुवर्णवर्ष, गोविंद तृतीय तथा इंद्र के नाम स्पष्टतः मिलते हैं। उसके चारों पुत्र योग्य एवं महत्वाकांक्षी थे और अपने पिता के शासनकाल में महत्वपूर्ण पदों पर कार्य कर रहे थे। स्तंभ गंगों की पराजय के बाद गंगवाड़ी के शासक के रूप में शासन कर रहा था, कर्कसुवर्णवर्ष खानदेश के प्रशासन को संभाल रहा था और गोविंद एवं इंद्र अपने पिता के अभियानों में उसका सहयोग कर रहे थे। ध्रुव धारावर्ष की मृत्यु के पश्चात् 793 ई. में उसका तीसरा पुत्र गोविंद तृतीय राजा हुआ। पैठन दानपत्र से स्पष्ट है कि स्वयं ध्रुव ने ही एक औपचारिक राज्याभिषेक के अवसर पर गोविंद को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत किया था। कर्क के सूरत दानपत्रों में भी कहा गया है कि गोविंद ने पिता से युवराज पद ही नहीं, बल्कि सम्राट पद भी प्राप्त कर लिया था- राज्याभिषेक कलशैरभिषिच्यदत्ताम्। राजाधिराजपरमेश्वरतां स्वपित्राः।। अपने पिता की मृत्यु के बाद गोविंद तृतीय पूर्ण रूप से राष्ट्रकूट राज्य के सिंहासन पर आसीन हुआ।सिंहासनारोहण के अवसर पर उसने प्रभूतवर्ष तथा जगत्तुंग की उपाधि धारण की। इसके अलावा उसने श्रीवल्लभ, पृथ्वीवल्लभ, विमलादित्य, जनवल्लभ, कीर्तिनारायण तथा त्रिभुवनधवल जैसी उपाधियाँ भी धारण की थी। यद्यपि गोविंद तृतीय के राज्याभिषेक की सभी औपचारिकताएँ उसके पिता के समय में ही पूरी की जा चुकी थीं। फिर भी, वह अपने बड़े भाई स्तंभ से सशंकित रहता था। इसलिए प्रारंभ में उसने साम एवं दाम नीति का प्रयोग कर अपने सभी सामंतों, मंत्रियों और अधिकारियों को विभिन्न प्रकार से संतुष्ट कर उनका सहयोग लेने का प्रयास किया। उसने छोटे भाई इंद्र को दक्षिणी गुजरात का प्रशासक नियुक्त किया, जो उसका समर्थक था। गोविंद तृतीय की उपलब्धियाँ :- १. स्तंभ का विरोध: गोविंद का बड़ा भाई स्तंभ कुछ समय तक तो शांत पड़ा रहा, किंतु राज्याधिकार से वंचित किये जाने के कारण वह अपनी सैनिक तैयारियों में लगा रहा। स्तंभ जानता था कि गोविंद को अकेले राजसिंहासन से अपदस्थ करना संभव नहीं है, इसलिए उसने दक्षिण के बारह राजाओं का एक संघ बनाया, जिसका नेतृत्व संभवतः कांची के पल्लव शासक दंतिवर्मन् ने किया था। इस संघ में सम्मिलित राजाओं का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है और नौसारी दानपत्र में उल्लिखित पांड्य, पल्लव, चोल, गंग, केरल, आंध्र, वेंगी, चालुक्य, मौर्य, गुर्जर, कोशल, अवंति तथा सिंहल जैसे तेरह राज्यों सूची काल्पनिक प्रतीत होती है। लगता है कि गोविंद तृतीय के विरोधी संघ में ऐसे पड़ोसी तथा सामंत शासक थे, जो उसके पिता ध्रुव के कार्यों से असंतुष्ट थे और अपना बदला लेना चाहते थे। इनमें नोलंबवाड़ी के चारूपोन्नेर, बनवासी के कत्तियिर तथा धारवाड़ के सामंत मारवर्श प्रमुख थे। संजन लेख से पता चलता है कि राज्य के कुछ उच्चाधिकारी भी स्तंभ का समर्थन कर रहे थे, क्योंकि वे ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण स्तंभ को ही राज्य का वैध उत्तराधिकारी मानते थे। जब गोविंद तृतीय को स्तंभ की विद्रोही गतिविधियों की सूचना मिली, तो उसने सबसे पहले गंगराज शिवमार को जेल से मुक्त कर उसे गंगवाड़ी का राज्य वापस करने का प्रलोभन दिया। दरअसल गोविंद तृतीय ने शिवमार एवं स्तंभ के बीच वैमनस्य उत्पन्न करने के उद्देश्य से यह चाल चली थी। किंतु गोविंद की योजना असफल हो गई, क्योंकि गंगवाड़ी पहुँचते ही शिवमार ने स्तंभ से मित्रता कर ली। संभवतः स्तंभ ने भी शिवमार को उसका राज्य वापस करने का वादा किया होगा। स्तंभ पर आक्रमण और उसका दमन: गोविंद तृतीय अपनी व्यक्तिगत योग्यता एवं कूटनीतिक कुशलता के कारण अपने उद्देश्य में सफल रहा। उसने राज्य का भार अपने विश्वसनीय भाई इंद्र के ऊपर डालकर गंगवाड़ी पर आक्रमण किया और स्तंभ को बुरी तरह पराजित कर बंदी बना लिया। अल्तेकर का अनुमान है कि गोविंद तृतीय ने सतंभ को उसके मित्रों से सहायता मिलने से पहले ही पराजित कर दिया था। राधनपुर ताम्रपत्रों से प्रमाणित होता है कि गोविंद ने यह विजय 798 ई. के लगभग प्राप्त की थी। किंतु संजन लेख से संकेत मिलता है कि बंदी स्तंभ के साथ गोविंद ने उदारता का व्यवहार किया और उसे पुनः गंगवाड़ी का वायसराय बना दिया। उसने अपने सहयोगी भाई इंद्र को लाट प्रदेश का वायसराय नियुक्त किया। २. गंगवाड़ी पर विजय : स्तंभ के विद्रोह का दमन करने के बाद गोविंद तृतीय ने स्तंभ के अन्य सहयोगियों को दंडित करने के लिए सैनिक अभियान किया। इस क्रम में उसने सबसे पहले गंगवाड़ी के शिवमार पर आक्रमण किया क्योंकि बंदीगृह से मुक्त होने के बाद उसने कोंगुणि राजाधिराज परमेश्वर श्रीपुरुष जैसी स्वाधीनता-सूचक उपाधियाँ धारण कर ली थी और गोविंद के विरुद्ध स्तंभ का साथ दिया था। राधनपुर लेख के अनुसार गोविंद ने बड़ी सरलता से शिवमार तथा उसके पुत्र को पराजित कर दिया और 798 ई. में उसे पुनः बंदीगृह में डाल दिया। गंगवाड़ी को पुनः राष्ट्रकूट सीमा में सम्मिलित कर लिया गया, जहाँ कम से कम 802 ई. तक स्तंभ ने गवर्नर के रूप में शासन किया। ३. नोलंबवाड़ी पर आक्रमण : गोविंद तृतीय ने गंगवाड़ी पर पूर्णतया अधिकार करने के बाद नोलंबवाड़ी के विरुद्ध अभियान किया। नोलंबवाड़ी के राजा चारुपोन्नेर की स्थिति ऐसी नहीं थी कि वह गोविंद तृतीय का सामना कर सके। अतः उसने बिना शर्त गोविंद तृतीय के समक्ष आत्मसमर्पण कर उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। गोविंद तृतीय ने उसे उसका राज्य वापस कर दिया। चित्तलदुर्ग से उपलब्ध कुछ लेखों से भी ज्ञात होता है कि नोलंबवाड़ी का शासक चारुपोन्नेर गोविंद का सामंत था। ४. पल्लव राज्य पर आक्रमण : इसके बाद गोविंद तृतीय ने पल्लव राज्य के विरूद्ध अभियान किया, जहाँ पल्लव नरेश दंतिवर्मन् शासन कर रहा था। गोविंद के पूर्व उसके पिता ध्रुव ने पल्लवों पर आक्रमण कर उसे राष्ट्रकूट साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया था। किंतु लगता है कि ध्रुव की मृत्यु के बाद पल्लव नरेश ने अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी और गोविंद को अपदस्थ करने का षड्यंत्र करने लगा था। गोविंद तृतीय के विरूद्ध स्तंभ ने बारह राजाओं का जो संघ बनाया था, उसका नेता पल्लव नरेश दंतिवर्मन् ही था। गोविंद तृतीय ने 803 ई. के लगभग पल्लव राज्य पर आक्रमण कर दंतिवर्मन् को पराजित किया। गोविंद तृतीय के 804 ई. के ब्रिटिश म्यूजियम ताम्रपत्रों के अनुसार कांची-विजय के बाद वह रामेश्वरम् तीर्थ में अपने एक सैनिक शिविर में रुका था। इससे पता चलता है कि उसने दंतिवर्मन् को 804 ई. के पहले पराजित किया होगा। किंतु गोविंद की यह विजय स्थायी नहीं रह सकी, क्योंकि अपने शासन के अंत में इसे पुनः पल्लवों के विरूद्ध अभियान करना पड़ा था। ५. वेंगी के चालुक्यों (सोलंकियों) से संघर्ष : दक्षिणी सीमा को सुरक्षित करने के बाद गोविंद ने पूर्वी सीमा पर वेंगी के चालुक्यों की शक्ति का दमन किया। इसके समकालीन चालुक्य शासक विष्णुवर्धन् चतुर्थ एवं विजयादित्य नरेंद्रराज थे। विष्णुवर्धन् चतुर्थ गोविंद तृतीय का नाना था, इसलिए संभवतः विजयादित्य ही गोविंद के कोप का शिकार हुआ। गोविंद ने नवारूढ़ शासक विजयादित्य को बुरी तरह पराजित कर उस पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया। इसकी पुष्टि राधनपुर तथा संजन लेखों से भी होती है, जिसके अनुसार पराजित वेंगी नरेश को गोविंद तृतीय के अस्तबलों के लिए अहाता तैयार करना पड़ा और उसके शिविर का फर्श साफ करना पड़ा था। इन विजयों के परिणामस्वरूप गोविंद तृतीय संपूर्ण दक्षिण भारत का सार्वभौम सम्राट हो गया। गोविंद तृतीय का उत्तर भारत की ओर अभियान दक्षिण भारत में अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के पश्चात् अपने पिता के समान गोविंद तृतीय ने भी उत्तर भारत की ओर अभियान किया, जिसके परिणामस्वरूप कन्नौज पर नियंत्रण को लेकर राष्ट्रकूटों क्षत्रियों (राजपूतों), पाल क्षत्रियों (राजपूतों) और प्रतिहारों क्षत्रिय (राजपै) के बीच पुनः त्रिपक्षीय संघर्ष आरंभ हो गया। उत्तर भारत से ध्रुव प्रथम के प्रत्यावर्तन के बाद अनेक परिवर्तन हुए थे। वत्सराज की पराजय से प्रोत्साहित होकर धर्मपाल ने कन्नौज को अधिकृत कर लिया और इंद्रायुद्ध को हटाकर अपने समर्थक चक्रायुद्ध को वहाँ का शासक नियुक्त किया था। धर्मपाल के खालिमपुर दानपत्र से ज्ञात होता है कि भोज, मत्स्य, मद्र, कुरु, यदु, यवन अवंति तथा गांधार के शासकों ने चक्रायुध के राज्याभिषेक के अवसर पर उपस्थित होकर इसके लिए अपनी स्वीकृति प्रदान की थी। किंतु धर्मपाल की यह सफलता स्थायी नहीं रह सकी। प्रतिहार नरेश वत्सराज का पुत्र नागभट्ट द्वितीय अपने पिता से अधिक महत्वाकांक्षी शासक था। उसने कन्नौज को आक्रांत कर चक्रायुद्ध को युद्ध में बुरी तरह पराजित कर दिया। जब चक्रायुध की ओर से धर्मपाल नागभट्ट के विरुद्ध आगे बढ़ा, तो उसे भी नागभट्ट के हाथों पराजित होना पड़ा। इन विजयों के बाद 806-807 ई. तक नागभट्ट द्वितीय उत्तर भारत का सबसे शक्तिशाली सम्राट हो गया। गोविंद तृतीय के उत्तर भारतीय अभियान का कारण स्पष्ट नहीं है। कुछ विद्वानों का अनुमान है कि धर्मपाल ने अपनी पराजय का बदला लेने के लिए गोविंद तृतीय को नागभट्ट पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया था। संभवतः नागभट्ट ने मालवा तथा गुजरात की ओर अपने साम्राज्य का प्रसार करने का प्रयास किया, जबकि इन प्रदेशों पर राष्ट्रकूटों का प्रभुत्व था। इसलिए गोविंद तृतीय के लिए नागभट्ट द्वितीय की महत्वाकांक्षा पर लगाम लगाना आवश्यक हो गया। कारण जो भी रहा हो, गोविंद तृतीय ने बड़े सुनियोजित ढंग से अपनी उत्तर भारतीय अभियान को क्रियान्वित किया। उसने अपने कुछ सेनानायकों को मालवा, कोशल, उड़ीसा तथा वेंगी राज्यों पर नियंत्रण रखने का उत्तरदायित्व सौंपा और अपने छोटे भाई इंद्र को गृहराज्य की रक्षा में नियुक्त किया। इसके पश्चात् वह स्वयं एक विशाल सेना के साथ भोपाल-झाँसी मार्ग से गंगा-यमुना के दोआब की ओर बढ़ा। गोविंद तृतीय का उत्तर भारतीय अभियान पूर्णतः सफल रहा। युद्ध में नागभट्ट को पराजित हुआ और उसे भागकर राजपूताने में शरण लेनी पड़ी। राष्ट्रकूट अभिलेखों में गोविंद तृतीय की उत्तर भारत की विजय का अस्पष्ट और अतिरंजित विवरण मिलता है। 811-12 ई. के बड़ौदा ताम्रपत्रों में कहा गया है कि इंद्र ने अकेले ही गुर्जर प्रतिहारों को पराजित कर दिया था। संजन तथा राधनपुर लेखों में कहा गया है कि जिस प्रकार शरद ऋतु के आते ही आकाश से बादल गायब हो जाते हैं, उसी प्रकार गोविंद के आते ही गुर्जर सम्राट नागभट्ट द्वितीय किसी अज्ञात स्थान में छिप गया। वह इतना अधिक भयाक्रांत था कि स्वप्न में भी यदि किसी युद्ध का दृश्य देखता, तो डर से काँपने लगता था। इस प्रकार स्पष्ट है कि गोविंद ने नागभट्ट द्वितीय को निश्चित रूप से पराजित किया और उसे भी वत्सराज की भाँति राजस्थान की मरुभूमि में शरण लेनी पड़ी थी। गोविंद तृतीय तथा नागभट्ट द्वितीय के बीच युद्ध किस स्थान पर हुआ, इसका उल्लेख नहीं मिलता है। अल्तेकर के अनुसार दोनों सेनाओं की मुठभेड़ मध्य प्रदेश में झाँसी तथा ग्वालियर के बीच किसी स्थान पर हुई होगी। गोविंद तृतीय की विजयों से भयभीत होकर कन्नौज के शासक चक्रायुध और उसके संरक्षक धर्मपाल ने बिना युद्ध किये ही आत्मसमर्पण कर दिया और गोविंद तृतीय की अधीनता स्वीकार कर ली। वास्तव में नागभट्ट द्वितीय से पराजित होने के बाद धर्मपाल गोविंद तृतीय से युद्ध करने की स्थिति में नहीं रहा होगा। इसलिए उसने बिना धन-जन की हानि किये गोविंद तृतीय के समक्ष आत्मसमर्पण करना ही श्रेयस्कर समझा होगा। गोविंद तृतीय के उत्तर भारतीय अभियान की तिथि के संबंध में विवाद है। 808 ई. के राधनपुर पत्र में प्रतिहार क्षत्रिय राजपूतों की पराजय का विवरण मिलता है। इस आधार पर फ्लीट, आर.सी. मजूमदार, आर. एस.त्रिपाठी तथा बी.सी. सेन जैसे विद्वानों ने इस अभियान की तिथि 807-808 ई. के बीच निर्धारित किया है। अल्तेकर का अनुमान है कि यह अभियान 806-807 ई. के बीच हुआ होगा क्योंकि 804 ई. तक गोविंद तृतीय ने काँची की विजय की होगी। किंतु बी.पी. सिन्हा तथा मिराशी ने सुझाव दिया है कि 802 ई. तक गोविंद तृतीय की समस्त विजयें पूर्ण हो चुकी थीं। इसलिए उत्तर भारतीय अभियान की तिथि 799-801 ई. के मध्य मानी जानी चाहिए। संभव है कि गोविंद तृतीय ने 795 ई. के लगभग उत्तर भारत की दिग्विजय के लिए प्रस्थान किया हो और 800 ई. के आसपास वहाँ से दकन वापस लौटा हो। इस प्रकार दूसरी बार भी राष्ट्रकूट सेना ने उत्तरी भारत के मैदानों में अपनी विजय का झंडा गाड़ दिया। राष्ट्रकूटों के राजकवियों के अनुसार दकन की रणभेरियों से हिमालय की कंदराएँ गुंजायमान हो गई थीं। प्रतिहार सम्राट नागभट्ट द्वितीय और पाल सम्राट धर्मपाल पर उसकी विजय का वर्णन करते हुए अमोघवर्ष प्रथम के संजन लेख में कहा गया है कि गोविंद तृतीय के घोड़े हिमालय की धाराओं के बर्फीले पानी पीते थे और उसके हाथियों ने गंगा-यमुना के पवित्र जल में स्नान किया था। यद्यपि गोविंद के हिमालय तक जाने का विवरण अतिरंजित है, किंतु संभवतः उसने प्रयाग, वाराणसी एवं गया जैसे तीर्थ-स्थानों की यात्रा की थी। किंतु गोविंद के उत्तरी अभियान से प्रतिहारों तथा पालों को कोई क्षेत्रीय हानि नहीं हुई। लगता है कि गोविंद तृतीय की उत्तर भारत की दिग्विजय का प्रमुख उद्देश्य क्षेत्रीय लाभ की महत्वाकांक्षा नहीं, बल्कि अपनी शक्ति का प्रदर्शन करना मात्र था। दक्षिण भारत की विजय :- उत्तर भारत की विजयों के बाद गोविंद दकन वापस लौट गया क्योंकि दक्षिण के द्रविड़ राजाओं ने उसको अपदस्थ करने के लिए एक संयुक्त मोर्चे का निर्माण कर लिया था। द्रविड़ शासकों के विद्रोह का दमन: जिस समय गोविंद तृतीय अपनी राजधानी से दूर उत्तर भारत के विजय-अभियान में व्यस्त था, उसी दौरान सुदूर दक्षिण के द्रविड़ शासकों ने राष्ट्रकूटों के विरुद्ध एक संघ बनाया था। इस संघ में पल्लव, पांड्य, चोल, केरल तथा पश्चिमी गंग राज्यों के शासक शामिल थे। इस राष्ट्रकूट-विरोधी संघ के राजाओं ने राष्ट्रकूट साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया। गोविंद तृतीय ने 802-803 ई. में तुंगभद्रा नदी के तट पर दक्षिणी राजाओं के सम्मिलित मोर्चे को तहस-नहस कर दिया। संजन लेख से ज्ञात होता है कि गंग का राजा इस युद्ध में मारा गया और चोलों, पल्लवों तथा पांड्यों की पताका को गोविंद ने छीन लिया। इस प्रकार गोविंद की यह विजय दक्षिण भारत की तत्कालीन राजनीति में निर्णायक सिद्ध हुई और दक्षिण के प्रायः सभी शासकों ने पुनः उसकी अधीनता को स्वीकार कर लिया। गोविंद तृतीय की शक्ति से भयभीत होकर सिंहल (लंका) के शासक ने अपनी तथा अपने मंत्री की अधीनता-सूचक प्रतिमाओं के साथ एक दूत-मंडल राष्ट्रकूट सम्राट की सेवा में उस समय समर्पित किया, जब वह काँची में ठहरा हुआ था। इन मूर्तियों को गोविंद ने अपनी राजधानी मान्यखेट में एक शिवमंदिर के समक्ष अपने विजय-स्तंभ के रूप में स्थापित करवाया था- लंकातः किलतत्प्रभुप्रतिकृती कांचीमुपेती ततः। कीर्तिस्तंभनिभी शिवायतनके येनेह संस्थापिती।। (संजन ताम्रलेख) वेंगी में हस्तक्षेप: गोविंद तृतीय को वेंगी की राजनीति में भी हस्तक्षेप करना पड़ा। वस्तुतः विष्णुवर्धन् चतुर्थ के समय तक वेंगी के चालुक्यों और राष्ट्रकूटों के बीच सौहार्दपूर्ण संबंध बने रहे। किंतु उसकी मृत्यु के बाद 799 ई. में जब विजयादित्य द्वितीय राजा हुआ, तो उसने राष्ट्रकूटों की प्रभुसत्ता मानने से इनकार कर दिया। परंतु इसी दौरान विजयादित्य के भाई भीमसलुकि ने उत्तराधिकार के लिए युद्ध छेड़ दिया और गोविंद तृतीय से सहायता माँगी। फलतः गोविंद ने 803 ई. में वेंगी पर आक्रमण कर विजयादित्य को पराजित किया और भीमसलुकि को वेंगी के राजसिंहासन पर प्रतिष्ठित कर दिया। गोविंद तृतीय का मूल्यांकन :- गोविंद तृतीय राष्ट्रकूट वंश के महानतम् शासकों में से एक था। उसने पालों, प्रतिहारों, गंगों, चोलों, चालुक्यों, पांड्यों तथा पल्लवों को पराजित कर उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में श्रीलंका तक और पश्चिम में सौराष्ट्र से लेकर पूरब में बंगाल तक के विस्तृत भूभाग में अपनी विजय पताका को फहराया। कहा जाता है कि दकन के ढोल हिमालय की गुफाओं से लेकर मालाबार के तट तक सुने जाते थे। गोविंद तृतीय की शक्ति इतनी बढ़ गई थी कि सिंहल नरेश ने भी भयभीत होकर बिना किसी संघर्ष के उसकी अधीनता स्वीकार कर ली थी। वनी डिंडोरी अभिलेख में सही कहा गया है कि गोविंद के राजसिंहासन पर प्रतिष्ठित होने के पश्चात् राष्ट्रकूट अजेय हो गये थे। राष्ट्रकूट अभिलेखों में गोविंद तृतीय की तुलना महाभारत के पार्थ (अर्जुन) तथा सिकंदर महान् से अकारण नहीं की गई है। शासन के अंतिम दिनों में गोविंद तृतीय ने अपने अल्पवयस्क पुत्र शर्व ‘अमोघवर्ष’ को युवराज घोषित कर अपने भतीजे इंद्र के पुत्र कर्क सुवर्णवर्ष को उसका संरक्षक नियुक्त किया। कर्क मालवा एवं गुजरात का प्रांतीय शासक था। चूंकि गोविंद तृतीय ने दिसंबर 813 ई. में तोखर्दे ताम्रपत्र जारी किया था। इससे लगता है कि उसने 793 ई. से 814 ई. तक शासन किया था।
*अद्वितीय योद्धा क्षत्रिय राजपूत सम्राट गोविंद तृतीय राष्ट्रकूट का इतिहास*  रोहतास सिंह चौहान,नोएडा साभार ध्रुव (धारावर्ष) प्रथम के कई पुत्र थे, जिनमें स्तंभ रणावलोक, कर्कसुवर्णवर्ष, गोविंद तृतीय तथा इंद्र के नाम स्पष्टतः मिलते हैं। उसके चारों पुत्र योग्य एवं महत्वाकांक्षी थे और अपने पिता के शासनक…
*हल्दीघाटी युद्ध के परम योद्धा राजा रामशाह तोमर की वीरगाथा* रोहतास सिंह चौहान,इतिहासकार मध्यभारत के प्रमुख राज्य ग्वालियर पर तोमरों ने 130 वर्ष तक राज किया था । राजा वीरसिंह देव से लेकर राजा विक्रमादित्य तक 9 पीढ़ियों ने ग्वालियर पर एक छत्र शासन किया । उनके गौरव मय इतिहास की कीर्ति पताका आज भी क़िले मे बने उनके स्मारक ओर रचित ग्रन्थों से जानी जा सकती हैं । राजा मानसिंह जी तो भारतीय इतिहास के विरले राजा थे जिन्होंने ग्वालियरी संगीत घराने को जन्म दिया जिस कारण महान संगीतज्ञ बिरजु ओर तानसेन निकले । राजा मानसिंह के योग्य पुत्र राजा विक्रमादित्य ने सात वर्षों तक लोदियों का मुक़ाबला किया एवं भारतमाता की रक्षा करते हुए पानीपत के युद्ध में बाबर से मुक़ाबला करते हुए रणक्षेत्र में वीरगति पाई। राजा विक्रमादित्य के युवराज राजा रामशाह हुए । इन्होंने अपने जीवन काल मे हिंदुस्थान के 9 से अधिक बादशाह देखे ओर तीन मेवाड़ के महाराणा । अपने जीवन में सात वर्ष की अवस्था में पिता के वीरगति प्राप्त करने के पश्चात 1526 से 1558 तक चम्बल के बीहड़ में ऐसाहगढ़ में रहकर अपने खोए राज्य की प्राप्ति में लगे रहे । अंत में जब अकबर की सेना ने ग्वालियर पर अधिकार कर लिया तब अपने पाँच सौ योद्धाओ के साथ महाराणा उदयसिंह जी के पास मेवाड़ पहुँचे । मेवाड़ के अधिपति ने राजा रामशाह का भव्य स्वागत किया । मेवाड़ में रहते इन्हें बारीदासोंर ओर भेंसरोड़गढ़ की जागीर , प्रति दिवस 801 रुपए नित्य ख़र्च के देने का आदेश दिया । चितोड़ के 1567 के युद्ध में राजा रामशाह भी थे लेकिन उनके भाग्य में हल्दीघाटी में वीरगति पाना लिखा था , इसलिये महाराणा उदयसिंह जी अपने साथ इन्हें भी वहाँ से साथ लेकर निकल गये । महाराणा प्रताप के राज्यारोहण में इनकी विशेस भूमिका थी । जब हल्दीघाटी के युद्ध का बिगुल बजा तब सबसे पहले राणा प्रताप ओर सभी सामन्त गण इनके डेरे पर ही बैठक करने एकत्रित हुए थे । महाराणा इनका बहुत आदर करते थे जब इन्होंने पहाड़ों मे युद्ध करने क सलाह दी तब मेवाड़ के वीरो ने इनका उपहास किया । युद्ध खुले मैदान में करने का निर्णय हुवा । मेवाड़ की फोज के हरावल पंक्ति में महाराणा स्वम ओर दक्षिणी पंक्ति में राजा रामशाह अपने तीनो पुत्रों व पाँच सौ वीरों के साथ लड़े । युद्ध का विकराल स्वरुप ओर उसमें लड़ने वाले वीरों की अदम्य शूरवीरता के किसे आज सभी के समुख हैं । राजा रामशाह अपने तीनो पुत्रों व तीन सो वीरों के साथ रक्त तलाई में मेवाड़ की रक्षा करते हुए वीरगति को प्राप्त हो गये। मेरा शोभाग्य हैं की में उनकी वंश परम्परा में 17 वें वंशधर होने का गौरव रखता हु । मेने इन पर शोध पूर्ण पुस्तक भी लिखने का प्रयास किया हैं । मेवाड़ के प्रसिद्ध इतिहासविद समाजसेवी सेवनिवृत्ति आई. ए. एस . श्री सज्जन सिंह जी राणावत साहेब का में ऋणी हु जिन्होंने मेरे शोध के समय मेरे पत्र के जवाब में लिखा था “ हम सब मेवाड़ वासी राजा रामशाह के नमक के चुकारे के अहसानमंद हैं “ मेने इस पत्र को पढ़ने के बाद इन भावो को समझा तब मुजे अपने पूर्वजों पर असीम गर्व हुवा । राजा रामशाह ओर उनको पुत्रों की वीरता पर लिखने से तो अल्बदायु भी अपनी लेखनी को रोक नहीं सका । हल्दीघाटी के युद्ध में दोनो ही पक्ष के योद्धाओं को अपने जीवन ओर प्राणो से बढ़कर मान- प्रतिष्ठा की चिन्ता थी ( Price of life was low , but the honour was high ) राजारामशाह के ज्येष्ठ पुत्र युवराज शालिवाहन की राजकुमारी से महाराणा अमरसिंह जी का विवाह हुवा था जिनके गर्भ से महाराणा करण सिंह जी का जन्म हुवा । हल्दीघाटी युद्ध के अनेक वर्षों के बाद महाराणा करणसिंह जी ने अपने नाना के ऊपर खमनोर गाँव में छतरियाँ बनवाई जो राजा रामशाह के बलिदान की वीर गाथा का गुणगान करती हैं । वैसे मेवाड़ के लोग मान समान तो बहुत करते हैं लेकिन मेवाड़ के राजघराने ने अब ग्वालियर के तोमर परिवार को लगभग भुला दिया हैं ।
*हल्दीघाटी युद्ध के परम योद्धा राजा रामशाह तोमर की वीरगाथा*  रोहतास सिंह चौहान,इतिहासकार  मध्यभारत के प्रमुख राज्य ग्वालियर पर तोमरों ने 130 वर्ष तक राज किया था । राजा वीरसिंह देव से लेकर राजा विक्रमादित्य तक 9 पीढ़ियों ने ग्वालियर पर एक छत्र शासन किया । उनके गौरव मय इतिहास की कीर्ति पताका आज भी क…
*दुश्मनों की किताब में राजपूतों की वीरता की गाथा* रोहतास सिंह चौहान, विचारक नोएडा दुनिया के इतिहास में शायद क्षत्रिय ही सिर्फ इकलौती कौम है, जिसके वीरता और पराक्रम की गाथाएं दुश्मनों की लिखी हुई किताबों में अधिक मिलती है। भारत के इतिहास की किताब से राजपूत इतिहास के पन्ने फाड़ दिए गए हैं राजपूतों का गौरवशाली इतिहास कल के गर्त में दबा दिया गया है । मुगल, बामपंथियो और आजादी के बाद सत्ता चलाने वाले नेताओं ने राजपूताना इतिहास को उल्टा कर दिया । चंगेज खान और तैमूर के वंशज बाबर ने अपनी आत्मकथा पुस्तक "बाबरनामा"में अपने समय राजपूत "राणा सांगा"जी की शक्ति का वर्णन किया है, कि कैसे खानवा के युद्ध से पहले जिसमे उसने तोपो बंदुखो/बारूदो का इस्तेमाल नहीं किया था और उस कन्वेंशनल युद्ध में जिसे बयाना का युद्ध कहा जाता है। उस परंपरागत हुए युद्ध में किस तरह राजपूतों ने उसे बुरी तरह परास्त किया था। जब चंगेज खान का वंशज और मुगल साम्राज्य का संस्थापक बाबर ने लिखा कि राजपूत अपनी वीरता तलवार पराक्रम के बल उस समय सबसे बड़ी शक्ति थे। जिनका सामना करने की हिम्मत दिल्ली गुजरात मालवे के सुल्तानों में एक भी बड़े सुल्तान में नहीं थी। ये ताकत राजपूतों की शुरुआती 16 वी सदी में थी। जब तुर्क अफ़ग़ान शक्तियां भी अपने चरम पर थी। तो राजपूतों को उनसे प्रमाण की जरूरत नहीं जिनका 18 वी सदी से पहले कोई इतिहास ही नहीं। पूरे उपमहाद्वीप में कोई गैर राजपूत शक्ति नहीं जिनके सैनिक शक्ति का वर्णन अरबों तुर्क अफगानो से लेकर अंग्रजों तक किताबों में दर्ज हो। राणा सांगा और राजपूतों की शक्ति का वर्णन "तारीख ए अहमद शाही उर्फ तारीख ए सलतानी अफगाना में 16 वी सदी के प्रसिद्ध अफ़ग़ान इतिहासकार अहमद यादगार सहित कई अफ़ग़ान इतिहासकारों ने भी किया है, कि कैसे मुट्ठी भर राजपूतों की सेनाओं ने इब्राहिम लोधी के अपने से दो से तीन गुना संख्या में ज्यादा होने के बावजूद अफ़ग़ान घुड़सवारों को परास्त किया था।
*दुश्मनों की किताब में राजपूतों की वीरता की गाथा*  रोहतास सिंह चौहान, विचारक नोएडा दुनिया के इतिहास में शायद क्षत्रिय ही सिर्फ इकलौती कौम है, जिसके वीरता और पराक्रम की गाथाएं दुश्मनों की लिखी हुई किताबों में अधिक मिलती है। भारत के इतिहास की किताब से राजपूत इतिहास के पन्ने फाड़ दिए गए हैं राजपूतों …
इतिहास दोहराया जा रहा है
*इतिहास दोहराया जा रहा है.....*  रोहतास सिंह चौहान, विचारक अकबर के दरबार में एक कट्टर सुन्नी मुस्लिम "अब्द अल कादीर बदायूंनी" था।उसने हल्दीघाटी के युद्ध का आंखों देखा वर्णन, जिसमें वह स्वयं सम्मिलित था , अपनी पुस्तक 'मुंतखाब-उल-वारीख' में किया है। मूल पुस्तक अरबी में है, जिसका 18…
समाज लक्ष्य शिक्षा और संस्कार हो
*राजपूत समाज का लक्ष्य शिक्षा, संस्कार और व्यापार हो*   रोहताश सिंह चौहान, विचारक नोएडा                 आज के समय में यदि किसी समाज का पतन हो रहा हैं तो वो समाज है राजपूत समाज ।कारण है राजपूत समाज का संगठित न होनाऔर एक दूसरे की मुखालपत करना ।और विशेष बात यह है कि राजपूत समाज के राजनेता कुर्सी हथिय…